“जो जाने-माने कवि और गीतकार आनंद बक्शी को नहीं जानता वो हिंदी सिनेजगत से वाकिफ नहीं है”, यह कहना है प्रसिद्ध कवि एवं गीतकार गुलज़ार का और उनका यह कथन हाल ही में पेंगुइन स्वदेश द्वारा प्रकाशित “मैं जादू हूँ चल जाऊंगा – आनंद बक्शी के अनसुने नग्मे” से लिया गया है। आनंद बक्शी के पुत्र राकेश (आनंद) बक्शी द्वारा संकलित एवं संपादित इस पुस्तक में नामी शायर एवं गीतकार जावेद अख्तर आनंद बक्शी के योगदान पर बात करते हुए कहते हैं कि वो दिन दूर नहीं जब आनंद बक्शी की काव्य रचनाओं पर विश्वविद्यालयों में पीएचडी की जाएगी। अपने करीब चार दशक लम्बे कैरियर में कवि एवं गीतकार बक्शी ने 4000 के आस-पास गीत लिखे और अगर आप हिन्दी फिल्मी गीतों के शौकीन हैं तो यह नहीं हो सकता कि आपका कोई दिन आनंद बक्शी का कोई ना कोई गीत सुने बिना गुज़र जाए! उन्होंने हर मूड, हर इमोशन पर गीत लिखे हैं – गीत लिखने की उनकी रेंज बहुत ही बड़ी है। मन का ऐसा कौन-सा भाव है और दिन का कौन-सा लम्हा जिस पर उन्होंने गीत न लिखा हो – और उनके ये सभी गीत अत्यंत लोकप्रिय भी हुए हैं।
पुस्तक में संकलित आनंद बक्शी का आत्मकथ्य पढ़ने से उनकी जद्दोजहद का अंदाज़ होता है। गज़ब तो यह है कि नौसेना की नौकरी उनकी पहचान कभी न थी, उन्होंने खुद को अपनी कविता में ही पाया। मैं अक्सर अपने मित्रों से पूछता हूँ कि ‘तुम यह न होते तो क्या होते’ अर्थात ‘जो कर रहे हो वो अगर न कर पाते’। अभी तक मुझे तो कोई ऐसा उत्तर नहीं मिला है जिस की मैं आपसे चर्चा कर सकूं, क्योंकि जुनून ही किसी की भी सही पहचान होती है। आनंद बक्शी ने अपने जुनून को साधने के लिए सब कुछ कुर्बान किया। उनके गीतों में उनके जीवन की पूरी झलक मिलती है. ‘तेरी कसम’ फिल्म के लिए अमित कुमार द्वारा गाये ‘मेरे गीतों में मेरी कहानियां हैं, कलियों का बचपन है, फूलों की जवानियाँ हैं’ हमें उनके जीवन-दर्शन की झलक तो मिल जाती है। बहरहाल, चर्चा हम कर रहे हैं उनके अनसुने नग्मों की।
राकेश आनंद बक्शी ने अपने पिता के अभी तक अनसुने नग्मों का यह जो संकलन तैयार किया है, यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इससे हमें आनंद बक्शी को और गहराई से जानने का अवसर मिला है। मुंबईया फिल्मी गीत लिखते समय गीतकार पर व्यावसायिक दबाव भी होते हैं लेकिन ‘मैं जादू हूँ चल जाऊँगा’ में संकलित रचनाएं हमें एक अलग रचनाकार से रु-ब-रु करवाती हैं जो एक भावना-प्रधान कवि भी है और कोमल हृदय से उपजी उनकी रचनाओं में निहित गंभीर जीवन दर्शन भी उमड़-उमड़ कर सामने आता है। आप कह सकते हैं कि शायद ये उनकी ज़िंदगी का फलसफा है जो उनकी रचनाओं में खिड़कियाँ बनाकर हमारे सामने आता रहता है। बक्शी जी ने अपने संघर्ष के शुरुआती सालों में बंबई के दादर रेलवे स्टेशन पर करीब तीन साल बिताये थे – है न कमाल की बात कि इतना दर्द पा कर भी कवि का ह्रदय प्रेम की बात ही करता रहा क्योंकि उसको भी एक अदद सहारा मिल ही गया था इन भावों को अलफ़ाज़ देने के लिए:
खुदा के नेक बन्दों में हमारे भी कई मिलते
वैसे तो बक्शी जी के लिए जज्बात के बाद ही तर्क की जगह आती थी और यही कारण है कि ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे भुजाये, सावन जो अगन लगाए उसे कौन बुझाये’ की प्रश्नात्मक प्रस्तुति भुलाये नहीं भूलती। लगभग 70 अनसुने गीतों और कविताओं से सुसज्जित इस छोटी पुस्तक में भावनाओं का सैलाब है। जो यह कहते रहें है कि बक्शी जी सिचुएशंस पर ही गीत लिखा करते थे उनको यह इल्म हो जायेगा कि हर गीत में कवि का दिल भी बराबर धड़कता था। अब यह पंक्तियाँ देखिए :
जुबान पे बात आने दो भले लड़ना पड़े ज़माने से
मुझे लगता है कि बक्शी जी आम आदमी के कवि थे और उनके शब्दों में हमेशा एक ताज़गी रहा करती थी। इस ताज़गी को आप अपनी तरह इस अनूठी पुस्तक में जगह-जगह देख सकते हैं। राकेश बक्शी ने अपने मरहूम पिताजी की स्मृति को तो अपने इस प्रयास के जरिए सँजोया ही है, साथ ही उन्होंने बॉलीवुड के गीतों से मुहब्बत करने वालों पर भी यह एक बड़ा उपकार किया है। उन्होंने आनंद बक्शी के अनसुने गीतों को सामने लाकर बक्शी जी की पुरानी रचनाओं की भी याद ताज़ा कर दी है। कभी-कभी तो मैं बक्शी जी की रचनात्मकता के आगे नतमस्तक हो जाता हूँ। अगर आप ने देव आनंद की फिल्म ‘जानेमन’ का गीत सुना है तो आप यह बखूबी समझ जाएंगे जो मैं कहना चाह रहा हूँ. इस फिल्म के शीर्षक गीत ‘जानेमन, जानेमन किसी का नाम नहीं फिर भी यह नाम होंठों पे न हो ऐसी कोई सुबह नहीं शाम नहीं’ किसी के न होने का भी गज़ब अहसास देता है।
अगर लेखक राकेश आनंद बक्शी मुझे इस पुस्तक का शीर्षक देने का मौका देते तो मैं कुछ यूँ लिखता ‘मैं शब्दों का जादूगर हूँ, जादू करता रहूँगा’।
by Rakesh Anand Bakshi
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